Dalit Sahitya Aur Saundaryabodh(Hindi, Hardcover, unknown)
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दलित साहित्य वास्तववादी साहित्य है तथा वह जीवनमूल्यों का समर्थन करने वाला साहित्य है। सामाजिक परिवर्तन की ज़रूरत समाप्त नहीं हुई है। परिवर्तन के लिए लिखने की आवश्यकता है पढ़ने की भी आवश्यकता है। परिणामतः ध्यान रखना होगा कि कलावादी साहित्य पर पोषित अभिरुचि को करवट बदलने की ज़रूरत है स्वच्छन्दी, स्वान्तःसुखाय लेखक और कार्यकर्ता लेखक के बीच का अन्तर ध्यान में आते ही दोनों के लेखन का मूलभूत अन्तर ध्यान में आता ही है। पाठक को कार्यकर्ता लेखक समझ लेना चाहिए। यदि लेखक को कार्यकर्ता माना तो उसके साहित्य को कार्य मानना होता है परिणामतः कार्य का स्वरूप, उद्देश्य, भूमिका और प्रेरणा महत्त्वपूर्ण ठहरती है। कार्य का मूल्यांकन करते समय ईमानदारी, ज़िद, यश और प्रतिरोध की समझ जैसी बातों को अनदेखा नहीं कर सकते। कलावादियों की दलित साहित्यविषयक बात करते समय अड़चन होती है और इस बात का ख़ेद होता है कि दलित साहित्य के सम्बन्ध में साहित्यबाह्य बातों पर बोलना पड़ताI कलावादी और दलित लेखकों के कला की ओर देखने के दृष्टिकोण में बहुत अन्तर है। यह ध्यान रखना चाहिए कि इन दोनों साहित्य के लिए एक ही पैमाना प्रयुक्त नहीं कर सकते।—इसी पुस्तक से★★★दलित साहित्य ‘साहित्य' है या नहीं ऐसा प्रश्न यदि उपस्थित हुआ तो उसका उत्तर दलित साहित्य ‘साहित्य' है, ऐसा उत्तर देना होगा। यदि दलित साहित्य 'साहित्य' हो तो 'दलित साहित्य' कला है या नहीं, इसका उत्तर 'दलित साहित्य एक है कला है', ऐसा देना होता है। यदि दलित साहित्य कला है तो इस साहित्य के कला-मूल्यों पर विचार-विमर्श होना चाहिए या नहीं, ऐसा प्रश्न आगे आता है। दलित साहित्य के कला-मूल्यों पर विचार-विमर्श होना चाहिए, ऐसा कहना होता है। कलावादी साहित्य के 'कला-मूल्य' और जीवनवादी साहित्य के 'कला-मूल्यों' में भेद होता है? इसका विचार करना पड़ता है।यह ध्यान रखना चाहिए कि मूलतः 'कला' एक माध्यम है। दलित लेखकों का मानना है कि कला को साध्य न मानकर कला को साधन कहना चाहिए। कलावादी कला को 'साध्य' और ‘स्वायत्त’ मानते हैं तथा भूमिका लेना नकारते हैं। मूलतः कला को 'साध्य' और 'स्वायत्त' मानना भी एक भूमिका ही है। तानाशाही में कलाकार को तानाशाही के विरुद्ध बोलने का अधिकार नहीं होता। कलाकार को 'राजा' और 'इतिहास' का गरिमागान करना ही पड़ता है और कलाकार 'धर्म तथा प्रकृति' में रमने लगता है। राजा, इतिहास, धर्म और प्रकृति कलावादियों के चरागाह हैं कलावादी भूमिका नहीं लेते। वह तटस्थ रहता है। उसकी तटस्थता 'जैसे थे' की समर्थक होती है। जो व्यवस्था होती है वही स्थायी रहनी चाहिए। उसमें हस्तक्षेप करना यानी कला को निकृष्ट करना है, ऐसी इस निरुपद्रवी स्वच्छन्दी कलाकार की भूमिका होती है। मूलतः प्रस्तुत भूमिका परिवर्तनवाद का प्रखर विरोध करने वाली प्रतिगामी प्रवृत्ति होती है।—इसी पुस्तक से