Krishnakant ka Vasiyatnama (Edition1st)(Hindi, Paperback, Chattopadhyay Bankim Chandra)
Quick Overview
Product Price Comparison
तुम वसंत की कोयल हो ! दिल खोलकर गाओ इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है; किंतु तुमसे मेरी विशेष प्रार्थना है-समय समझकर गाना। समय-कुसमय हर समय का गाना अच्छा नहीं। देखा, मैंने बहुत खोजकर कलम-दावात इत्यादि का दर्शन पाया, और भी अधिक खोज-खोजकर मन को पाया और कृष्णकांत के वसीयतनामे की कहानी लिखने बैठा। ऐसे समय आकाश से तुमने स्वर भरा - " कुह ! कुह ! कुह!" तुम बड़ी सुकंठ हो, इसे मैं स्वीकार करता हूँ। किंतु गला सुरीला होने से ही किसी को गाने का अधिकार नहीं है। जो हो, मेरे बाल पक चुके हैं कलम चला रहा हूँ। ऐसे समय तुम्हारे गाने से बहुत हानि नहीं होती। लेकिन देखो, नये बाबू लोग जब रुपये की ज्वाला से बेचैन होकर जमा-ख़र्च मिलाने में अपना माथा खपा रहे हैं, तब उस ऑफिस की टूटी दीवार से जो कहीं तुमने आवाज कस दी- "कुह" बस, तो फिर बाबू का जमा-ख़र्च मिल ही नहीं सकता। जब विरह-संतप्ता सुंदरी प्रायः सारे दिन के बाद, अर्थात रात नौ बजे कुछ खाने के लिए बैठती है और जैसे ही खीर का कटोरा सामने खींचती है, वैसे ही तुमने स्वर भरा- "कुह” सुंदरी की खीर वैसे ही रह गयी शायद, अनमनी होकर उसने उसमें नमक मिलाकर खाया। जो हो, तुम्हारे "कुह" में कुछ जादू है। नहीं तो जब तुम बकुल वृक्ष पर से गा रही थी और विधवा रोहिणी बराल में कलसी दबाकर पानी लाने जा रही थी, तब लेकिन पहले पानी लाने के लिए जाने का परिचय करा दूँ।.. इसी उपन्यास से