Adivasi Pratirodh Kedar Prasad Meena(Hardcover, Hindi, Kidar Prasad Meena)
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....जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है, इससे इन्हें कोई मतलब नहीं होता। राजनीतिक चेतना का हनन ऐसे होता है। इसके बदले इनके निजी स्वार्थ खूब सधते हैं। इन लोगों को इनके संरक्षक लोग, पार्टियाँ इतनी सहूलियतें देती हैं कि इनकी गलतियाँ, इनके भ्रष्टाचार के कारनामे दब जाते हैं। मतलब आदिवासी आरक्षण के नाम पर जो निर्धारित सीटें हैं, ऐसे लोगों द्वारा भरकर उनके आदिवासी हेतु सुरक्षित होने के मायने ही बदल दिये गये हैं। ये सीटें एक तरह से जनरल वर्ग के सेवकों और आदिवासी वर्ग के आरक्षण के लूटेरों के लिए सुरक्षित हो गयी हैं। इस प्रक्रिया को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि 1932 में डॉ. अम्बेडकर सुरक्षित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की माँग क्यों कर रहे थे और क्यों वह दलितों-आदिवासियों को नहीं दिया गया था। ....जो अपने समाज से कोई ताल्लुक नहीं रखते हैं। ताकि वे लोग उनकी पार्टियों की सेवा वैसे ही करें, जैसे तीस-चालीस साल की नौकरी के दौरान वे उचित-अनुचित ढंग से सरकारों की सेवा करते हैं; यानि खूब सारा कमाते हैं और लगभग गैर-जिम्मेदार बने रहते हैं। इनको जनता के हालात से कोई मतलब नहीं होता है, ये आदिवासी समाज का दुर्भाग्य हैं। मुझे जरा कोई बताये कि इस तरह की राजनीति करने वाले लोग झारखंड और छत्तीसगढ़ में जो आन्दोलन चल रहे हैं, जमीन पर जो लोग मारे जा रहे हैं, जिनकी जमीनें छीनी जा रही हैं, जिनकी बहिन-बेटियों के साथ अनाचार हो रहे हैं, उनके बारे में अपनी क्या समझ रखते हैं? और उनके पक्ष में इन्होंने कभी एक शब्द बोला है क्या? अगर नहीं, तो कौन बचायेगा उनको? ये अभिजात्य आदिवासी लोग उन पिछड़े आदिवासियों, विस्थापित हो रहे आदिवासियों के प्रति इतने गैर-जिम्मेदार कि लगभग उनके विरोधी हो गये हैं। – इसी पुस्तक में संकलित व्याख्यान से