Hindi Kavita Ki Parampara(Hardcover, Namvar Singh, Compiled, Edited by Vijay Prakash Singh)
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हिन्दी कविता की परम्परा - हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में मनुष्य के समग्र मूल्यांकन का प्रयास करने से पहले हमें यह देखना चाहिए कि समकालीन हिन्दी कविता में मनुष्य की जो छवि उभरती है, वह कैसी है। यहाँ हमें अपने को सिर्फ़ कविता के दायरे में सीमित रखने के लिए क्षमाप्रार्थी होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह कविता ही है, जिसमें विचार, भाव और अवधारणा का संश्लिष्ट रूप देखने को मिलता है । कहना न होगा कि आज की हिन्दी कविता में खिन्नता और निराशा की मनोदशा व्याप्त है । ऐसी निराशा, जो भय और आतंक से भरी हुई है। आज का हिन्दी कवि जिस मनुष्य की छवि उकेर रहा है, वह मनुष्य होने की बुनियादी शर्त से कहीं नीचे का जीवन जी रहा है। वह स्वयं को चारों तरफ़ से घिर चुके ऐसे जानवर की तरह देखता है, जिसकी आँखों में गहरा भय समाया हुआ नहीं है-मानो उसका अन्त अब ज़्यादा दूर है। ग़रज़ कि आज की हिन्दी कविता का मनुष्य स्वयं को नियति के हवाले कर चुका है। हालाँकि कभी-कभी वह बेहद हताश व्यक्ति की तरह युक्तिपूर्ण साहस का प्रदर्शन करता है, जिसे कुछ कवि और आलोचक ‘प्रतिबद्धता' मानते हैं। पर फिर से वह उसी आत्मदया, प्रलाप और शाश्वत भय की शरण में चला जाता है। वह आधे-अधूरे मन से समाज की अमानवीय शक्तियों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ता तो है, किन्तु अपने विचारों और उद्देश्यों के प्रति दृढ़ आस्था रखने वाले व्यक्ति की तरह वह निष्ठा, धैर्य और साहस का प्रदर्शन नहीं कर पाता । जब हिन्दी का कवि बार-बार यह कहता है कि उसे योजनाबद्ध रूप से या सोच-समझकर अमानवीकृत कर दिया गया है, तो उसकी कविता के सन्दर्भ में हमें यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या उसके पास यह जानने की एक स्पष्ट और सुविचारित दृष्टि है कि मनुष्य होता क्या है और मनुष्य को होना कैसा चाहिए?- इसी पुस्तक से